महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध घोड़े का नाम चेतक था।
महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध घोड़े का नाम चेतक था।
चेतक अश्व गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाड़ी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मेवाड़ आए।
चेतक अश्व गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाड़ी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मेवाड़ आए।
अटक परीक्षण में काम आ गया।[2] त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया।
अटक परीक्षण में काम आ गया।[2] त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया।
इन घोड़ों के बदले महाराणा ने चारण व्यापारियों को जागीर में गढ़वाड़ा और भानोल नामक दो गाँव भेंट किए।[
इन घोड़ों के बदले महाराणा ने चारण व्यापारियों को जागीर में गढ़वाड़ा और भानोल नामक दो गाँव भेंट किए।[
युद्ध में चेतक को हाथी का मुखौटा लगाया जाता था ताकि शत्रुसेना के हाथियों को भयभीत किया जा सके।
युद्ध में चेतक को हाथी का मुखौटा लगाया जाता था ताकि शत्रुसेना के हाथियों को भयभीत किया जा सके।
युद्ध में चेतक ने मुगलों के सेनापति मानसिंह के हाथी पर पैर रख दिए और महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर सीधा भाले से वार किया हालांकि चेतक
युद्ध में चेतक ने मुगलों के सेनापति मानसिंह के हाथी पर पैर रख दिए और महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर सीधा भाले से वार किया हालांकि चेतक
चेतक का एक पैर मानसिंह के हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया।
चेतक का एक पैर मानसिंह के हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया।
तीन पैर और खून से लतपथ होने के बावजूद भी चेतक महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल रहा।
तीन पैर और खून से लतपथ होने के बावजूद भी चेतक महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल रहा।
उस क्रम में चेतक ने 25 फिट नाले को छलांग लगाकर पार किया, लेकिन बुरी तरह घायल हो जाने के कारण अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ।
उस क्रम में चेतक ने 25 फिट नाले को छलांग लगाकर पार किया, लेकिन बुरी तरह घायल हो जाने के कारण अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ।
आज भी राजसमंद के हल्दी घाटी गांव में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहाँ स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था।इस बात से स्पष्ट होता है
आज भी राजसमंद के हल्दी घाटी गांव में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहाँ स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था।इस बात से स्पष्ट होता है